एक कहानी “बुढ़ापे” की

Story of meeting with old age

उस दिन गाँधी पार्क की बेंच पर मुझे बुढ़ापा मिला। उसके चेहरे पर पड़ी झुर्रियाँ अब मुरझाने लगी थीं, चश्मे की डंडी टूटी हुई थी, बत्तीसी बदलवाने का समय नजदीक था, कुछ याद भी अब कहाँ रहता था, एक दिन तो खाना खाना ही भूल गया। फिर भी ये सबसे प्यार से मिलता, लेकिन इसके साथ लोगों को शिथिलता और बीमारी नाम की इसकी दो सालियों से भी दो चार होना पड़ता, इसलिए कोई इसे पसंद न करता था।

बुढ़ापे ने मुझे देखा तो बुलाया। मैं उसके सबसे प्रियजनों में था क्यूंकि मैं उसके अनुभव का लाभार्थी था। मुझे बुलाकर हालचाल लिया और दो घडी की मीठी बातें, अनगिनत आशीर्वाद के साथ कुछ पते की सीख और समझदारी की कड़वी दवा दे वो चला गया। यूँ था तो कुरूप लेकिन भली सी बातें करता था।

गाँधी पार्क से बाहर निकल, गाँधी चौराहे पर मुझे एक लड़की ने रोक लिया। अपना परिचय उसने जवानी नाम से दिया। रोकने की गरज पूछने पर कहा कि कोई खास बात नहीं है, किसी काम से जाने वालों को अपने मतलब से उलझाकर रोकना और ध्यान भंग करने में मुझे मजा आता है। कच्ची उम्र के लोगों को पथभ्रष्ट करना मुझे खुश कर जाता है, यूँ तुम भी मेरी ही तरह जवान और हसीं हो तो मेरा एक काम कर दो ना। मुझे गाँधी रोड की पिज्जा वाली दुकान से एक मीडियम पिज़्ज़ा दिला दो ना।

उसकी इस नाकाबिल-ए-बर्दाश्त बात पर मैंने उसे किसी और का हाथ पकड़ने की सलाह दी और वहाँ से निकलने लगा। थोड़ी देर बाद, वो लड़की किसी और लड़के के साथ उस पिज्जा वाली दुकान में ‘एक्स्ट्रा चीज विद कोक’ का आर्डर दे खुश हो रही थी। उस लड़के को नौकरी के लिए इंटरव्यू देने जाना था, लेकिन यही तो उसका काम था, एक और नवयुवक बेरोजगार होने की राह पर बढ़ चुका था।

दस लाख के पैकेज की योग्यता, अब सरकारी ‘गाँधी बेरोजगारी सम्मान योजना’ के तहत हजार रूपए का वजीफा पाने की जुगत भिड़ाने लगी थी। मुफ्त की बिजली और पानी का वादा उनसे था ही, अब बिना कुछ किये एक हजार की गाँधी योजना के पैसे के सपने बुने जाने लगे थे, साथ में कोई हमसफर भी यूँ ही मिल गया था।

दिन गुजरे, साल गुजरे, ‘गाँधी बेरोजगार सम्मान योजना’ का वज़ीफाधारी अब युवा न था, सरकार बदली और वजीफा मिलना बंद। अब हमसफ़र भी रुखसत हो चुकी थीं और वजीफे के साथ लाखों के पैकेज वाली नौकरी की उम्मीद भी। एक और नवयुवक अपनी मूर्खता के हाथों, ना, न कह पाने की लाचारी में अपना भविष्य धूल धुसरित कर चुका था। गाँधी योजना के वजीफे की जगह अब ‘गाँधी अन्न योजना’ के तहत राशन मिलने लगा, काम फिर चल निकला।

कुछ दिन बाद चुनाव हुए, चुनाव में शामिल दोनों प्रतिस्पर्धी ‘जवानी’ और ‘बुढ़ापा’ थे। ‘जवानी’ के साथ लोगों का हुजूम था, सो पैसे के इंतजाम में कोई कसर न रखी गई। लोगों को तृप्त होने तक सोमरस की निर्बाध सुविधा दी गई। ‘जवानी’ जीतती दिख रही थी।

वहीं ‘बुढ़ापा’ न दिखता अच्छा था, न अपनी बात कह पा रहा था। उसके चुनाव प्रचार में गिनती के लोग शामिल थे, जिनमें अनुभव, प्रेम, अपनत्व, समझदारी और सामाजिक सौहार्द शामिल थे। इन्ही चंद लोगों के साथ, बुढ़ापे को ‘विकास’ का भी साथ था क्यूंकि उसके पास ‘दृष्टिकोण’ भी था। कुल मिलाकर आठ-दस लोगों का सहयोग लेकर बुढ़ापा क्या ही कर लेता, सो हार गया।

‘जवानी’ ने सरकारी खजाने से सब कुछ मुफ्त कर दिया था, शासन पंगु हो चुका था, ‘विकास’ अपने अभिन्न मित्रों दृष्टिकोण एवं अनुभव के साथ था जिन्होंने बुढ़ापे का साथ छोड़ने से मना कर दिया, और अंततः वो समाज हार गया। नशे और आतंक ने उससे दोस्ती जो कर ली थी।

कहने को ये एक काल्पनिक कथा है, लेकिन कहीं न कहीं यही हमारे समाज की सच्चाई भी है। बुजुर्गों को सम्मान न देने से, बच्चों में संस्कारों की कमी रहती है, जिससे एक कच्ची उम्र में उन्हें गलत राह पर मोड दिया जाता है। समाज में नफरत, व्यभिचार और अव्यवस्था फैलने लगती है।

एक समाज के तौर पर, सेवानिवृत्त लोगों के आशीर्वाद की, बुजुर्गों के अनुभव की, उनकी समस्याओं से निकलने की कला की, सहिष्णुता की, युवा वर्ग को महती आवश्यकता है। इस सामंजस्य के अभाव में देश के सबसे खुशहाल कृषि-प्रधान राज्य में युवाओं की चिंतनीय स्थिति को हम सबने देखा ही है। एक बड़ी राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष ने नशे की समस्या का वर्णन खुले मंच से कर दिया था। फिल्में बनाई गईं, गोया सारा राज्य नशेड़ी हो। । हमें संभलने के लिए अनुभवी हाथों की जरुरत है।

यही जरुरत आपको वो बनाती है, जो आप है – “विशिष्ठ, अनुपम और संजीदगी की नायाब ईश्वरीय कृपा” यानि हमारे बुजुर्ग। आपके गुणों, तप और साहस के साथ समाज को बांध लेने की क्षमताओं का ये समाज सदा सर्वदा ऋणी रहेगा।

अभिनंदन, अभिवंदन !!

Author Bio

Hemendra Chaturvedi

Hemendra Chaturvedi

With a Masters Degree in Human Resources (Minors), he is an excellent communicator. With a passion in writing, in both Hindi and English, he is a blogger, and his articles have been published in Opindia and Kreately.

3 thoughts on “एक कहानी “बुढ़ापे” की”

  1. Ekdum sahi .,.aaj k bacchon ko unke margdarshan ki jarurat h ..jo experience unhone Arjit kiya h… waha kisibhi badi degree me nhi milega.,..

  2. पीढ़ी का अंतर हमेशा से रहा है और आगे भी रहेगा। किसी भी व्यक्ति के अनुभव से अच्छें और बुरे का अंतर समझना हमेशा से सीखने की बेहतर प्रणाली साबित हुई है। इसलिए युवा वर्ग को चाहिए कि बुजुर्गों के अनुभवो से ज़्यादा से ज़्यादा सीखने और समझने की कोशिश करे।
    सर बहुत ही अच्छा लेख है आपका।
    धन्यवाद।

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