विजय जी आपको इस पवित्र कार्य के लिए बहुत-बहुत बधाई देती हूं। हमारे प्राचीन भारत में भी जीवन के उत्तरार्ध जोकि वानप्रस्थाश्रम कहलाता है जब व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाता है। उसके लिए एक मार्ग होता है अपनी उर्जा के सदुपयोग के साथ साथ ,”आत्म अनुसंधान” के लिए साधना रत होना। शरीर की ऊर्जा सदैव समाज के लिए समर्पित होती है और चित् चेतना “परम सत्य” की खोज में समर्पित होती है और मन “श्री हरि” के चरणों में समर्पित होता है। इसको ऐसे कह सकते हैं:
जग की सेवा खोज अपनी प्रेम हरि से कीजिए जिंदगी का राज है यह जानकर जी लीजिए साधना की राह पर साधन किसी का है दिया मैं नहीं मेरा नहीं ये तन किसी का है दिया जो भी अपने पास है वह धन किसी का है दिया।
देह की मृत्यु के आने से पहले व्यक्ति के जीवन में सन्यास स्वयं ही घटित हो जाता है। आपने उसी दृष्टि को अपने इस कार्य के माध्यम से स्थापित किया है। आपने बिल्कुल सही कहा बिना उद्देश्यों को समर्पित हुई उर्जा कुंठित ही होती है और वैसे भी बिना व्यक्तिगत लाभ के समाज के कार्य में लगना समाज की ही जिम्मेदारी होती है। राष्ट्र का कार्य राज्य क्यों करें राष्ट्र का कार्य राष्ट्र के निवासी ही करें। यह बहुत सुंदर पहल है आपको बहुत-बहुत साधुवाद।