बुजुर्ग बचपन की यादें भुला नहीं पाते

बुजुर्ग बचपन की यादें भुला नहीं पाते

आकाशवाणी का एक चैनल है विविध भारती। यह चैनल रेडियो सुनने वाले बुजुर्गो के बीच बहुत प्रचलित है। इस पर ज्यादातर पुराने गाने आते है, जिन्हें सुनने पर उन दिनो की यादें ताजा हो जाती है। अगर वो फिल्म देखी हुई होती हैं, तो मन मे वो दृश्य सामने आ जाते है। कई बार तो अगर बच्चें भी साथ सुन रहे होते हैं तो वो बहुत ही आश्चर्यचकित हो जाते हैं कि ऐसे भी गाने फिल्माएं जाते थे – शब्दों में इतनी भावुकता और संगीत इतना मीठा। वैसे, अगर आज भी युवा अंताक्षरी खेल रहे हो तो बहुत से पुराने गानों को ही शामिल किया जाता हैं।

बचपन की सुनहरी बातों की याद दिलाने के लिए वाट्सएप पर अनेकानेक मैसेज आते है। एक मैसेज आया जिसमे दिखलाया गया कि बुजुर्गो के एक कार्यक्रम में सभी से ऐसे खेल खिलाये गए जो उनके बचपन में प्रचलित थे। गुल्ली-डंडा, कंचे या अंटा, पिट्ठू, जमीन पर चॉक से कुछ बॉक्स बनाकर देखे बिना पीछे से छोटा पत्थर फैकना और फिर कूदना वगैरह जैसे खेलो में सभी ने भाग लिया। सबसे मजेदार दृश्य तो वह लगा जिसमें बुजुर्ग लोग साइकिल चक्के के रीम को एक डंडे से दौड़ा रहे थे। याद आने लगा की हम भी ये सब कितने चाव से खेलते थे। न धुल मिट्टी की परवाह न भूख का एहसास। इन सारे खेलों में एक खास बात ध्यान देने योग्य हैं कि ये सब बगैर किसी खर्च के ही हमें अनुपम आनंदित कर देते थे। समय परिवर्तनशील है, बहुत से नए नए खेल आ गए हैं और अब तो समय इतनी तेजी से बदल गया है कि नए जमाने के खेल भी गायब हो गए। इन सबकी जगह ले ली है मोबाइल फोन ने। सोते-जागते, उठते-बैठते, भोजन के वक्त भी इसे कोई अपने हाथों से अलग नहीं होने देता। कल क्या होगा भगवान ही जाने।

याद तो स्कूल के दिनों की भी बहुत आती हैं। हमारे वो दोस्त, हमारे वो शिक्षक, हमारी बदमाशियां और फिर हमारी सजा (पनिशमेंट)। बैंच पर खड़ा होना, हाथ ऊपर कर के खड़ा होना, दीवार की तरफ देखकर या क्लास के बाहर खड़ा होना, मुर्गा बनना या निल डाउन होना, कान पकड़ना, ब्लेक बोर्ड साफ करना, होटो पर अंगुली रखकर खड़ा होना, क्लास समाप्त होने के बाद भी रुकना, एक लाइन या एक शब्द को दस बार लिखना तो सामान्य सी बात थी। गाल पर चांटा या हथेली पर स्केल से पिटना भी काफी होता था। बड़ी शैतानीयों पर तो केनींग, झुक कर पिछवाड़े पर बेंत से पिटाई भी हो जाती थी। स्कूल की सजा हम स्कूल में ही भूल कर हंसते हंसते घर आ जाते थे परन्तु आज के दिन तो अगर किसी बच्चे को एक थप्पड़ भी लगा दिया तो बवाल हो जाता है। शिक्षक व स्कूल पर पुलिस केस तक होने के समाचार अखबार में पढ़ने को मिल जाते है।

आजकल स्कूल की छुट्टियों पर किसी पर्यटक स्थल पर जाने का रिवाज आम हो गया है। हमारे बचपन के दिनों में तो हम सबका ननिहाल या भुआ के यहां ही जाना होता था। कभी कभी अपने पैतृक गांव या तीर्थ करने भी चले जाते थे। हमारा सफर ट्रेन से होता था और उसका आनंद ही अलौकिक था। खाने पीने का सारा प्रबंध घर से कर के निकलते। गर्मी के दिनों में तो कईयों के पास सुराही तक ट्रेन में दिखाई दे जाती थी। आज भी सुराही के उस मीठे ठंडे पानी का अनुभव याद आता है। ट्रेन में एक साथ मिलकर खाना खाने का मजा ही ओर था। आज तो बिरले ही घर के भोजन का आनंद यात्रा में लेते हैं।

बचपन की यादें हमारे जीवन का अहम हिस्सा होती हैं जो हमें हमारे बालपन के जीवन के अच्छे पलों की याद दिलाती हैं। ये वो यादें है जो हमारे भीतर के बच्चे को जीवित रखती हैं और ये ही वो यादें है जो हमारी सोच और भविष्य को आकार देती है। बचपन में हमारी इच्छा होती थी कि हम जल्द बड़े हो जाएं और वह सब कर सके जिसकी उस आयु में हमें मनाई थी, पर बड़े करते थे। आज इतनी परेशानियों के बीच तो यहीं मन में आता है कि काश वो बचपन के दिन वापस आ जाएं। कभी घर पर जब परिवार के साथ गोष्ठी होती हैं तो हमें अपने बच्चो के अपने छोटेपन की बांतो को बताने में बहुत आनंद आता है। मजे की बात तो यह होती हैं की उन बातो को बच्चें भी चाव से सुनते हैं। हम कितने ही व्यस्त हो जाए बचपन की यादें भूल नहीं पाते। कई बार तो उन यादों को याद करके अपने अकेलेपन में भी हम हंसते मुस्कराते है।

लेखक

विजय मारू
विजय मारू

लेखक नेवर से रिटायर्ड मिशन के प्रणेता है। इस ध्येय के बाबत वो इस वेबसाइट का भी संचालन करते है और उनके फेसबुक ग्रुप नेवर से रिटायर्ड फोरम के आज कोई सोलह सौ सदस्य बन चुके है।

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