तब हम दोस्तों को आवाज देकर बुलाते थे

तब हम दोस्तों को आवाज देकर बुलाते थे

मैंने कोई एक वर्ष पहले इसी विषय पर एक लेख लिखा था, जिसका शीर्षक था बुजुर्ग के लिए मित्र मंडली बहुत आवश्यक। आज पुनः, जब व्हाट्सएप पर एक मैसेज आया तो मन हुआ कि इस विषय पर तो और भी बहुत कुछ लिखा जा सकता है। यह मैसेज तो दिल को ही छू गया। मैसेज में लिखा था “फिर से लौटना चाहता हूं उसे दौर में, जहां दोस्त फोन से नहीं आवाज देकर बुलाते थे।”

इस मैसेज को बनाने वाले ने कितना सही लिखा है। याद कीजिए वों दिन जब हम छोटे थे, मोबाइल फोन नहीं था और लैंडलाइन फोन की भी बहुत कमी ही थी। सबके घरों में नहीं होता था और जिनके घरो में होता भी था तो एक ही फोन होता था। उस समय भी हम जब रोज सुबह घूमने जाते थे तो अपने घर से निकले, पास में ही दोस्त के घर गए और बाहर से ही पुकारते थे की आओ समय हो गया है चलने का। फिर अगले दोस्त के पास और फिर अगले दोस्त के पास यही क्रम होता था। सबको पुकार कर साथ लेकर अपने निश्चित स्थान की ओर प्रस्थान कर देते थे।

उन दिनों, दोपहर की धूप में भी दोस्त की पुकार दिल को ठंडी छांव सी लगती थी। जब गली में “अरे ओ… ” की आवाज़ सुनकर हम दौड़कर बाहर आ जाया करते थे — बिना ये सोचे कि क्या पहना है, बाल ठीक हैं या नहीं। क्योंकि तब मिलने की खुशी होती थी तो उसमें दिखावा कहीं नहीं होता था। झगड़े भी होते और आपसी बातचीत में हल्की फुल्की बहस भी होती थी, पर अगले ही पल सुलह हो जाती थी। ‘लेट्स प्ले’ का कोई नोटिफिकेशन नहीं आता था, बस दोस्त की हंसी और गली में गूंजती पुकार ही सब कुछ थी। खेलने के लिए तय समय नहीं होता था, बस मां की एक डांट बताती थी कि बहुत हो गया, अब घर आ जाओ।

इसके विपरीत आज समय कितना परिवर्तित हो रहा है। ज्यादातर लोग मोबाइल पर ही यह काम निपटा लेते हैं। अब रिश्ते ऑनलाइन हैं, चैट्स पर टाइप हो रहे हैं, पर आंखों में वो चमक, वो अपनापन कहीं खो गया है। अब पहले कॉल आता है, फिर मिलने का वादा। अगर अच्छी मित्रता है तो सप्ताह में दो-चार दिन फोन कर लिए तो सोचते हैं बहुत बड़ी उपलब्धि है हमारी। कुछ ग्रुप ऐसे जरूर हैं जो की सप्ताह में या रोज सुबह भी मिलते हैं। लेकिन ऐसा अनुपात में अगर देखें तो बहुत कम है। वो बरसात में भीगते हुए खेलने का मज़ा, वो बिना कारण छत पर देर तक बातें करना, अब सब कुछ फोटोज़ और वीडियोज तक सिमट गया है। अब जो पास हैं, वो दूर लगते हैं। और जो दूर हैं, बस स्क्रीन पर दिखते हैं। दिलों की नजदीकियाँ, टेक्स्ट मैसेज की लाइनों में कहीं खो सी गई हैं।

आज हमारी जीवन शैली इतनी बदल गई है की पुरानी बातें याद करके दिल भर जाता है। विकास, शहरीकरण और दिखावा, यह सब इतना बढ़ गया है कि वह सपना फिर से जीवित होने के कोई आसार हो ही नहीं सकते। वैसे, कुछ भी बदलाव आ गया हो लेकिन यह निश्चित है कि हमारे दोस्तों से संपर्क बनाए रखने का महत्व कभी काम नहीं होगा। कई बार तो ऐसा लगता है कि शायद परिवार से भी ज्यादा एक उम्र आने के बाद हमें दोस्तों से ही ज्यादा बात करने की इच्छा रहती है।

इसके बहुत से कारण भी हो सकते हैं। परिवार के साथ क्योंकि हम हर पल बिताते हैं तो बहुत सी बातें व्यक्तिगत रूप में अलग हो जाती है। दोस्त क्योंकि हमसे अलग रहते हैं तो उनसे मिलकर पुरानी यादों की बातें करना बहुत अच्छा लगता है। एक विशेष बात यह भी रहती है कि इस उम्र में आकर हमारे बहुत से मित्र तो अब हमारे बीच है ही नहीं। तो फिर जो बचे हुए हैं उन्हीं से तो हम पुरानी यादें ताजा कर सकते हैं। हालांकि बढ़ती उम्र में याददाश्त भी कुछ कम हो जाती है, डिमेंशिया का असर हो जाता है, फिर भी जितनी भी बातें याद हैं उसी में बहुत आनंद आता है।

उस दौर में हम कभी लौट नहीं सकते जहां दोस्ती में ना टाइम टेबल था, ना प्लानिंग। हां. हर मुलाकात में अपनापन था, हर हंसी में सच्चाई थी। वो दौर सिर्फ बीता हुआ कल नहीं था, बल्कि एक जादू था, जो दिलों को जोड़ता था — बिना नेटवर्क, बिना तकनीक के।

लेखक

विजय मारू
विजय मारू

लेखक नेवर से रिटायर्ड मिशन के प्रणेता है। इस ध्येय के बाबत वो इस वेबसाइट का भी संचालन करते है और उनके फेसबुक ग्रुप नेवर से रिटायर्ड फोरम के आज कोई सोलह सौ सदस्य बन चुके है।

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