हम उम्र के लोगों के साथ बैठने का एक अपना ही आनंद होता है। पुरानी यादें, भूले-बिसरे किस्से, साझा अनुभव — सब एक बार फिर से जीवंत हो उठते हैं। उन पलों में जैसे ज़िंदगी फिर से अपने सुनहरे पन्ने पलटने लगती है। अपने-अपने दौर की बातें सुनाते हुए जब हंसी के ठहाके गूंजते हैं, तो लगता है जैसे समय थम गया हो।
ऐसी बैठकों में बस इतना ध्यान रखना जरूरी है कि बातचीत एकतरफा न हो जाए। ग्रुप में सभी को अपनी बात कहने का अवसर मिलना चाहिए। हर व्यक्ति की अपनी अभिव्यक्ति की शैली होती है — कोई खुलकर बोल देता है, कोई भीतर ही भीतर संकोच में रह जाता है। अगर हम लगातार बोलते ही चले जाएं, तो कई लोग मन की बात कहने से चूक जाते हैं।
यह भी सच है कि इस उम्र में आकर हममें से बहुत से लोग बातें दोहराने लगते हैं। कोई कम, कोई ज़्यादा — पर यह स्वाभाविक है। इसके पीछे कई कारण हैं। एक तो स्मृति का थोड़ा कमजोर होना, और दूसरा यह कि हमें यकीन नहीं होता कि हमारी कही बात सामने वाले ने सचमुच सुनी या समझी भी है या नहीं। इसलिए कभी-कभी वही बात फिर कह देते हैं।
लेकिन जब हम अपने परिवार के युवा सदस्यों या अन्य छोटों के बीच होते हैं, तो वहां यह स्वाभाविकता थोड़ी सावधानी मांगती है। आज की पीढ़ी की सोच तेज, अभिव्यक्ति मुखर और समय सीमित है। उनमें उतनी सहनशीलता नहीं है कि वे बार-बार दोहराई गई बातें धैर्य से सुनें। यदि आपने एक ही बात दो बार कह दी, तो वे तुरंत टोक देंगे — “आप यह पहले भी बता चुके हैं!” उन्हें यह नहीं सूझता कि दोहराना किसी हठ का नहीं, बल्कि उम्र का स्वाभाविक असर है।
छोटों के साथ बैठते समय एक और बात याद रखनी चाहिए — “हमारे ज़माने में ऐसा होता था” जैसी बातें ज्यादा न कहें। यह वाक्य अक्सर हमारे मुंह से सहज ही निकल जाता है, पर यह युवा मन को दूरी का एहसास कराता है। जब वे अपनी कोई नई बात या अनुभव साझा करते हैं और हम तुरंत अपने दौर की तुलना करने लगते हैं, तो उन्हें लगता है कि हम उनकी बात को कमतर आंक रहे हैं। वे भले कुछ कहें नहीं, पर भीतर से चिढ़ जरूर जाते हैं।
दरअसल, पूरी बात ‘कैसे’ कही जाती है, यह उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि ‘क्या’ कहा जा रहा है। टोन का ही तो सारा खेल है। वही बात अगर हम सहज, स्नेहपूर्ण लहजे में कहें, तो सामने वाला सहर्ष स्वीकार कर लेता है। लेकिन जरा-सा भी आदेशात्मक या ऊंचे स्वर में कहा गया वाक्य, मन पर चोट कर जाता है।
घर के भीतर तो यह और भी ज्यादा मायने रखता है। कई बार हम भावनाओं में बहकर कह बैठते हैं — “मैंने तुम्हारे लिए सब कुछ किया, और आज…” या “मैं बड़ा हूं, इसलिए मुझे ज़्यादा पता है।” हमें लगता है कि हम सच्चाई कह रहे हैं, पर सुनने वाले को यह ताना या दोषारोपण जैसा लगता है। बच्चे तब चुप हो जाते हैं, पर दिल से दूरी बढ़ जाती है।
यह भी जरूरी है कि हम हर वक्त उन्हें सीख देने या सुधारने की कोशिश न करें। सुझाव देना अच्छी बात है, पर यह उम्मीद न रखें कि हर सुझाव को तुरंत माना जाएगा। अगर कोई नहीं भी माने, तो बुरा मानने की जरूरत नहीं है। आखिर आज के बच्चे अपनी दुनिया अपने ढंग से बना रहे हैं, जैसे हमने अपने समय में की थी। हमारा अनुभव उनके लिए उपयोगी हो सकता है, लेकिन यह उन पर थोपना नहीं चाहिए।
यह संतुलन ही रिश्तों की मिठास बनाए रखता है। हमें अपने जीवन के अनुभवों का बोझ नहीं, बल्कि प्रकाश बांटना है। युवाओं के सामने हमारी भूमिका एक समझदार मार्गदर्शक की होनी चाहिए, न कि ‘हमेशा सही रहने वाले’ बुजुर्ग की।
एक और बात — चाहे हालात जैसे भी हों, हमें अपने मन में किसी प्रकार की ग्लानि नहीं रखनी चाहिए। यह भावना कि “अब मेरी बात की किसी को आवश्यकता नहीं” या “अब मेरी अहमियत कम हो गई है” — यह मन को कमजोर करती है। उम्र बढ़ने के साथ आत्मसम्मान और सकारात्मक दृष्टि बनाए रखना सबसे बड़ी बात है।
विशेषज्ञ भी कहते हैं कि बुजुर्गों को बातचीत करते रहना चाहिए। बातें करना मन को हल्का रखता है, स्मृति को सक्रिय रखता है, और सामाजिक जुड़ाव बनाए रखता है। पर साथ ही, यह भी ध्यान रखना है कि बातचीत में मिठास, मर्यादा और लचीलापन बना रहे।
हर पीढ़ी की अपनी गति और दृष्टि होती है। हमारी पीढ़ी ने जो देखा और जिया, वह उनके लिए इतिहास है; और जो वे देख रहे हैं, वह हमारे लिए नया अनुभव है। अगर दोनों एक-दूसरे को सुनें, समझें और सम्मान दें, तो अनुभव और उत्साह का सुंदर संगम बन सकता है।
अंततः यही संतुलन हमें रिश्तों को सहेजने और खुद को भीतर से संतुलित रखने में मदद करता है:
बातें करें, पर ध्यान से; साझा करें, पर थोपें नहीं; और सबसे बढ़कर, सुनना न छोड़ें।
लेखक

लेखक नेवर से रिटायर्ड मिशन के प्रणेता है। इस ध्येय के बाबत वो इस वेबसाइट का भी संचालन करते है और उनके फेसबुक ग्रुप नेवर से रिटायर्ड फोरम के आज कई हज़ार सदस्य बन चुके है।




