समाज सेवा में अग्रणी भूमिका निभाए वरिष्ठ जन

समाज सेवा में अग्रणी भूमिका निभाए वरिष्ठ जन

एक उम्र आने के पश्चात बहुत से लोगो में यह विचार पल्लवित होते रहते है कि वो अब क्या करे, अपना समय कैसे व्यतीत करे? सबके पास वो सुख भी नहीं होता कि वो एक बड़े परिवार का हिस्सा हैं जहां बेटे, बहू, और उनके बच्चे साथ रहते हो। ज्यादातर वरिष्ठ जन अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा दिये और ये बच्चे अपनी जीविकोपार्जन करने में व्यस्त हो गए। कई तो माता-पिता से अलग शहर में भी रहने लगे। ऐसे में वरिष्ठ जन अपने ज्ञान व अनुभव का भरपूर उपयोग कर सकते हैं समाज के लिए काम करके।

भारतीय परंपरा रही है कि हम केवल अपना नहीं सोचते हैं। हम अगर सक्षम हैं तो जरूरतमंद की सेवा करने में कभी पीछे नहीं रहते हैं। यहीं संस्कार हमें मिले हैं। हमारे तो लाखो लाख मंदिरों में भी प्रत्येक दिन आरती के बाद जो जय घोष होता हैं उसमे एक स्वर में सब बोलते हैं ‘विश्व का कल्याण हो’। वसुधैव कुटुम्बकम की नीति पर हम विश्वास करते है। यह एक संस्कृत वाक्यांश है और सनातन धर्म का मूल संस्कार और विचारधारा है, जिसका अर्थ है ‘विश्व एक परिवार है’।

बचपन से हमने यही पाया है कि स्कूल, अस्पताल, रहने के लिए धर्मशाला, गौ पालन, प्याऊ लगवाना, वगैरह समाज की तरफ से उपलब्ध करवाये जाते थे। सौभाग्यवश परोपकारी व्यक्तियों की भी कमी नहीं है समाज में। अनेकानेक स्वयंसेवी संस्थाएं कार्यरत हैं जो जरूरतमंद लोगों के लिए बहुत अच्छा कार्य कर रही है। बहुत सी ऐसी संस्थाओ में यह देखा गया है कि धन तो पर्याप्त उपलब्ध हो जाता हैं पर निर्धारित कार्य को सुचारु रूप से क्रियान्वित करने के लिए योग्य व्यक्ति मिलने में कठिनाई आती है। इस मैनपावर की कमी को पढ़े-लिखे, अनुभवी लोग बखुबी पुरा कर सकते है।

मेरा परिचय एक अस्सी वर्ष के व्यक्ति से है, जिन्हे रिटायर हुए कोई बाइस वर्ष हो गए। वो अपने-आपको एक शिक्षा संबंधित संस्थान से जुड़कर बहुत गौरवान्वित महसूस करते है। उनके अंदर दूसरो की सेवा कर के एक ऐसी ऊर्जा उत्पन्न होती है जो उनके अच्छे स्वास्थ्य का राज है। उनके परिवार वाले व मित्रगण भी इस बात को स्वीकारते है कि इनके स्वस्थ रहने में सबसे बड़ा योगदान इनका इस संस्था में सेवा देना है।

एक और परिचित वरिष्ठ व्यक्ति अपना काफी समय एक बड़े मंदिर के संचालन में लगाते है। इनके वहां जुड़ने से मंदिर के सभी कार्य सुचारू रूप से चलने लगे और भक्तो का आना भी बढ़ गया। इसी तरह बहुत से लोग गुरूद्वारो में भी किसी न किसी कार्य में अपना योगदान देते है।

किसी संस्था से जुड़ना इतना आसान भी नहीं है। जो लोग पहले से ही मेनेजमेंट मे लगे हैं वो जल्दी किसी नए व्यक्ति को प्रवेश नहीं करने देते। उनमे अहम की भावना जागृत हो जाती है और कहीं कहीं तो वित्तीय अनियमितता भी नजर आती हैं। ऐसा नहीं है कि अच्छे संस्थानों की कमी है। अपने विवेक से सही संस्थान को हमे स्वयं को ढूंढना होगा।

अगर आपको अकेले काम करने में ज्यादा अच्छा लगता है तो समाज सेवा करने के और भी ऑप्शन्स है। कुछ दिन पहले ही एक मैसेज वाट्सएप पर पढ़ा कि एक व्यक्ति ने वर्षो की मेहनत कर के पूरा का पूरा एक जंगल ही लगा दिया।

एक बहुत ही सरल सा काम कोई भी कर सकते है – वो है गरीब जरूरतमंद बच्चो को पढ़ाने का। इसके लिए कोई ज्यादा दूर जाने की भी आवश्यकता नहीं। अपने पास ही कई ऐसे गरीब परिवार मिल जाएंगे जो आर्थिक आभाव के कारण अपने बच्चे को स्कूल नहीं भेज सक रहे है। ऐसे बच्चो को पढ़ाने में अपना योगदान दिया जा सकता है। अखबार में छपा एक समाचार याद आ रहा हैं जिसमे बताया गया कि एक व्यक्ति ने अपने पास ही के एक कन्सट्रकशन साइट पर काम कर रहे मजदूरो के बच्चों को पढ़ाना शुरु कर दिया।

बाराबंकी के पास एक आश्रम में हर वर्ष एक महिने का स्वास्थ्य कैंप लगता है। इस कैंप में विभिन्न बीमारी से ग्रसित हजारों गरीब गांववासी का इलाज निशुल्क किया जाता है। एक तरफ तो डॉक्टरो एवं उनके सहायक की पूरी टीम अपना योगदान बगैर कोई फीस के देते है, तो दूसरी ओर अनेकानेक महिलाए व पुरुष स्वयंसेवक दूर-दूर से अपने खर्च पर आते है मरीज की देखभाल करने के लिए।

एक बार सेवा करने की भावना मन में आ जाए तो आगे का रास्ता स्वयं मिल ही जाएगा। यह तो निश्चित ही है कि समाज सेवा से आप अपनी भी सेवा कर रहे हैं। आप हमेशा प्रसन्न व स्वस्थ रहेंगे।

लेखक

विजय मारू
विजय मारू

लेखक नेवर से रिटायर्ड मिशन के प्रणेता है। इस ध्येय के बाबत वो इस वेबसाइट का भी संचालन करते है और उनके फेसबुक ग्रुप नेवर से रिटायर्ड फोरम के आज कोई सोलह सौ सदस्य बन चुके है।

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