पचास के दशक की बात है। हम तब स्कूल में पढ़ते थे। रेस्टोरेंट में जाकर खाना खाना बहुत दुर्लभ बात हुआ करती थी। बड़े शहरों को छोड़ दें, तो बाकी छोटे कस्बों में तो रेस्टोरेंट होते ही बहुत कम थे। अगर किसी को काम के सिलसिले में दूसरे गांव या शहर जाना पड़ता था, तो वह किसी रिश्तेदार के घर ही रुकता था। बहुत से व्यापारी वर्ग के लोगों की अपनी-अपनी गद्दियां होती थीं, जहां बाहर से आने वाले व्यापारी रुकते और वहीं उनके भोजन का भी प्रबंध रहता था। कहीं-कहीं महाराज के “बासे” भी चलते थे — जहां बहुत ही कम मूल्य में भरपूर, घर जैसा भोजन मिल जाता था।
फिर साठ का दशक आया। हम कॉलेज पहुंचे तो रेस्टोरेंट कभी-कभी ही जाते थे — जब किसी मित्र का जन्मदिन होता था, या किसी खास मौके पर। परंतु सामान्य जीवन में भोजन घर पर ही होता था। धीरे-धीरे समय बदलता गया। नौकरी या कारोबार के सिलसिले में जब अपने शहर से बाहर जाना शुरू हुआ, तो रिश्तेदारों के यहां रुकने की बजाय होटल में रुकने का चलन बढ़ गया। और स्वाभाविक ही भोजन भी बाहर का होने लगा।
आज की दुनिया तो बिल्कुल ही अलग हो गई है। युवा अब अकेले रहते हैं — काम के सिलसिले में परिवार से दूर। और उनका भोजन किसी “जोमैटो” या “स्विगी” जैसी सेवाओं के जरिए सीधे दरवाजे पर पहुंच जाता है। समय की कमी, सुविधा की चाह, और कभी-कभी ‘टेस्ट’ के मोह में, रसोई का चूल्हा ठंडा पड़ता जा रहा है।
परंतु इस नई जीवनशैली का असर स्वास्थ्य पर कितना गहरा पड़ा है, यह अब किसी से छिपा नहीं है। जीवन-प्रत्याशा (life expectancy) तो बढ़ी है, लेकिन स्वस्थ जीवन घटा है। अब तो युवावस्था में ही लोग गंभीर बीमारियों की गिरफ्त में आने लगे हैं। रक्तचाप, मधुमेह, मोटापा, हार्ट अटैक — ये सब अब बुजुर्गों की नहीं, युवाओं की बीमारियां बन चुकी हैं। कम उम्र में मृत्यु के बढ़ते आंकड़े एक चेतावनी हैं — शायद इस बात की कि घर का भोजन ही असली दवा था, जिसे हमने नज़रअंदाज़ कर दिया।
घर का भोजन न करने का एक और गहरा सामाजिक पहलू भी है। हाल ही में सोशल मीडिया पर एक बहुत ही सार्थक लेख वायरल हुआ — “The Silent Kitchen — A Cultural Warning from America to India.” इसमें बताया गया है कि जब घर का चौका बंद होने लगता है, तब परिवार का विघटन शुरू हो जाता है। अमेरिका इसका सजीव उदाहरण है।
इस पोस्ट के अनुसार, 1971 में जहाँ 79% अमेरिकी पारिवारिक जीवन में थे, आज वहां केवल 20% रह गए हैं। तलाक़ की दर बढ़ी है, अकेलेपन का संकट विकराल हुआ है, और मानसिक रोगों की संख्या में तेज़ी से वृद्धि हुई है। जब रसोई से धुआं उठना बंद हुआ, तो घर से अपनापन भी उठ गया।
दूसरी ओर जापान को देखिए — वहां आज भी घर पर भोजन बनता है, परिवार साथ बैठकर भोजन करता है, और शायद यही कारण है कि जापानी लोग विश्व में सबसे लंबी उम्र जीते हैं। घर का भोजन वहां सिर्फ पेट भरने का साधन नहीं, बल्कि परिवार को जोड़े रखने का माध्यम है।
भारत की संस्कृति भी सदियों से यही सिखाती आई है — “अन्नं ब्रह्म” यानी भोजन में ईश्वर का वास है। भोजन केवल शरीर को नहीं, मन और आत्मा को भी पोषित करता है। जब माँ या पत्नी प्रेम से भोजन परोसती है, तो वह सिर्फ स्वाद नहीं देती — वह घर का स्नेह, सुरक्षा और संस्कार परोसती है।
आज के माता-पिता और दादा-दादी की यह जिम्मेदारी है कि वे अपने बच्चों को इस परंपरा का मूल्य समझाएं। घर की रसोई को “साइलेंट किचन” बनने से बचाना है। साथ बैठकर भोजन करने की परंपरा को फिर जीवित करना है। यह केवल स्वास्थ्य की नहीं, संस्कार की भी रक्षा है।
एक समय था जब पूरे परिवार का एक साथ बैठकर भोजन करना दिन का सबसे सुखद क्षण होता था। वहां हंसी होती थी, संवाद होता था, दिनभर की बातें होती थीं। यह सिर्फ भोजन नहीं, रिश्तों का बंधन था। आज अगर हम उस परंपरा को पुनः जीवित कर लें, तो न केवल सेहत सुधरेगी, बल्कि परिवार में प्रेम, एकता और शांति भी बढ़ेगी।
हम वरिष्ठ जनों की यही सलाह है —
रसोई का चूल्हा ठंडा मत होने दीजिए।
घर के भोजन की थाली में सिर्फ स्वाद नहीं, जीवन की मिठास है।
यह हमारी संस्कृति की पहचान है, हमारी सेहत की सुरक्षा है, और हमारे परिवार की आत्मा भी।
आइए, एक बार फिर संकल्प लें —
हम अपने किचन को साइलेंट नहीं होने देंगे!
क्योंकि घर का भोजन ही सच्चा पोषण है, और घर का साथ ही सच्चा जीवन।
लेखक

लेखक नेवर से रिटायर्ड मिशन के प्रणेता है। इस ध्येय के बाबत वो इस वेबसाइट का भी संचालन करते है और उनके फेसबुक ग्रुप नेवर से रिटायर्ड फोरम के आज कई हज़ार सदस्य बन चुके है।




