वरिष्ठ जन की चिंता – सिकुड़ता परिवार

Concern of Elderly – The Shrinking Family

हाल ही में व्हाट्सएप पर एक मजेदार, लेकिन सोचने पर मजबूर कर देने वाला वीडियो देखने को मिला। वीडियो को हास्य के रूप में प्रस्तुत किया गया था, परंतु इसके भीतर छिपा संदेश हमारे समाज की गंभीर समस्या को उजागर करता है। इसमें दिखाया गया कि एक देवी जी ने दुकान खोली है, जहां पीछे बैनर लगा है – “यहां रिश्तेदार भाड़े पर मिलते हैं।”

एक कपल जिनके घर में बेटे की शादी होने वाली है, को अपने समारोह को सफल बनाने के लिए रिश्तेदार चाहिए, लेकिन उनके पास वास्तविक रिश्तेदार नहीं हैं, और वो पहुंच जाते है इस दुकान पर। देवी जी की इस दुकान में हर प्रकार के रिश्तेदार उपलब्ध हैं – फूफा, मासी, बुआ, चाचा – सभी किराए पर, और सबकी अपनी-अपनी दरें।

पहली नजर में यह दृश्य हंसी पैदा करता है, लेकिन जब गहराई से देखें तो यह हमारे परिवारिक ढांचे की बदलती हकीकत को सामने लाता है। कभी भारतीय समाज में संयुक्त परिवार उसकी सबसे बड़ी ताकत हुआ करते थे।

परिवार केवल माता-पिता और बच्चों तक सीमित नहीं था, बल्कि दादा-दादी, चाचा-चाची, मामा-मामी, बुआ-मासी और उनके बच्चों तक फैला हुआ होता था। इन रिश्तों की मिठास ही परिवारों की असली पूंजी थी। लेकिन समय के साथ हमने “हम दो, हमारे दो” को अपनाया और धीरे-धीरे परिवार छोटे होते चले गए।

आज की स्थिति यह है कि बच्चे यह भी पूछने लगे हैं कि मासी या बुआ होती कौन है। क्योंकि घर में उन्हें ये रिश्ते देखने को ही नहीं मिलते। चचेरे और ममेरे भाई-बहनों की परंपरा लगभग समाप्ति की ओर है। अगली पीढ़ी के लिए यह रिश्ते किताबों या फिल्मों में ही रह जाएंगे।

इसका एक कारण बदलती जीवनशैली और सोच भी है। आज के युवा देर से विवाह करना पसंद करते हैं। करियर और आर्थिक स्थिरता पाने की होड़ में विवाह टलते-टलते तीस की उम्र पार कर जाते हैं। फिर जब शादी होती भी है, तो बच्चे पैदा करने में भी संकोच रहता है। “एक ही काफी है, और न भी हुआ तो भी चलेगा” – यह सोच बहुत आम हो गई है।

इसके पीछे कई कारण हैं:

  1. नौकरी प्रधान मानसिकता – पहले परिवार के लोग कृषि या व्यवसाय से जुड़े रहते थे, जहां परिवार बड़ा होना सहायक सिद्ध होता था। लेकिन अब अधिकतर लोग नौकरी पर आश्रित हैं। नौकरी में समय और अवसर सीमित रहते हैं, जिससे बड़े परिवार की कल्पना ही कठिन हो जाती है।
  2. शिक्षा और खर्च का दबाव – आज की शिक्षा बेहद महंगी है। एक बच्चे की पढ़ाई का खर्च ही माता-पिता की कमाई का बड़ा हिस्सा ले लेता है। ऐसे में दूसरा बच्चा पालना आर्थिक जोखिम जैसा लगता है।
  3. स्वास्थ्य पर असर – देर से विवाह करने और मातृत्व-पितृत्व टालने से स्वास्थ्य समस्याएं भी बढ़ रही हैं। फर्टिलिटी की समस्याएं अब युवाओं में भी आम होती जा रही हैं। यही वजह है कि गंभीर बीमारियां भी जल्दी आ घेरती हैं।

इन सब कारणों से परिवार छोटा ही नहीं बल्कि भावनात्मक रूप से भी सिकुड़ता जा रहा है। रिश्तों की गर्माहट, सामूहिकता की शक्ति और पारिवारिक सहयोग – ये सब धीरे-धीरे कम हो रहे हैं। पहले शादी-ब्याह, त्यौहार या संकट के समय पूरा परिवार साथ खड़ा होता था। अब कई घरों में यह जिम्मेदारी केवल पति-पत्नी और बच्चों तक सीमित रह गई है। बुजुर्ग माता-पिता अकेलापन महसूस करने लगे हैं, क्योंकि उनके आसपास अब वही भीड़भाड़ वाला परिवार नहीं रहा।

इसका समाधान क्या हो सकता है? क्या हम इस प्रवृत्ति को बदल सकते हैं?

समाजशास्त्री और चिंतक मानते हैं कि हमें फिर से परिवार की अहमियत समझनी होगी। संयुक्त परिवार भले ही आज के दौर में कठिन हो, लेकिन कम से कम रिश्तों को जीवित रखना हमारी जिम्मेदारी है। बच्चों को यह सिखाना जरूरी है कि रिश्ते केवल खून के नहीं, बल्कि भावनाओं के बंधन से भी जुड़े होते हैं। त्योहारों पर रिश्तेदारों से मिलने जाना, बच्चों को दादी-नानी की कहानियां सुनाना, पारिवारिक आयोजनों में सबको शामिल करना – यह छोटी-छोटी बातें बड़े बदलाव ला सकती हैं।

साथ ही, सरकार और समाज को भी अपनी भूमिका निभानी होगी। अगर शिक्षा और स्वास्थ्य का बोझ कम किया जाए तो लोग परिवार बढ़ाने के लिए अधिक सहज होंगे। धार्मिक और सामाजिक संगठन भी विवाह और परिवार की पवित्रता को लेकर जागरूकता फैला सकते हैं। मीडिया का दायित्व भी है कि वह परिवार के मूल्यों को हास्य या बोझ के रूप में नहीं, बल्कि जीवन के आधार के रूप में प्रस्तुत करे।

वरिष्ठ नागरिकों के लिए यह विशेष चिंता का विषय है। वे ही वह पीढ़ी हैं जिन्होंने बड़े परिवारों की रौनक देखी है। आज जब वे अपने बच्चों और पोते-पोतियों के बीच अकेले पड़ते जा रहे हैं, तो उन्हें सबसे अधिक पीड़ा होती है। इसलिए यह चर्चा केवल समाजशास्त्र या अर्थशास्त्र की नहीं, बल्कि मानवीय संवेदना की भी है।

यदि हमने समय रहते इस दिशा में ठोस कदम नहीं उठाए तो वह दिन दूर नहीं जब रिश्तेदार किराए पर मिलने की यह कॉमेडी वीडियो, हकीकत में बदल जाएगी। आने वाली पीढ़ियां पारिवारिक मूल्यों से वंचित हो जाएंगी और सामाजिक ढांचा और अधिक कमजोर हो जाएगा। इसलिए आज जरूरत है कि हम सब मिलकर परिवार के महत्व को पुनर्जीवित करें और रिश्तों की डोर को मजबूत बनाएं। यही हमारे समाज की सबसे बड़ी पूंजी है।

लेखक

विजय मारू
विजय मारू

लेखक नेवर से रिटायर्ड मिशन के प्रणेता है। इस ध्येय के बाबत वो इस वेबसाइट का भी संचालन करते है और उनके फेसबुक ग्रुप नेवर से रिटायर्ड फोरम के आज कई हज़ार सदस्य बन चुके है।

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