बढ़ती उम्र में समय कटता नहीं या समय है नहीं ?

Does Time Drag or Fly in Old Age? The Choice Is Ours

बढ़ती उम्र के साथ अक्सर एक सवाल सामने आता है – समय कटता नहीं या समय है ही नहीं? यह दुविधा लगभग हर वरिष्ठजन के जीवन में किसी न किसी रूप में मौजूद रहती है। दिलचस्प बात यह है कि इसका उत्तर व्यक्ति की सोच और जीवनशैली पर ही निर्भर करता है।

कुछ वरिष्ठजन अपनी दिनचर्या को इतनी सुव्यवस्थित कर लेते हैं कि उनके पास दिनभर करने के लिए ढेरों काम होते हैं। उनकी समय-सारणी (रूटीन) ऐसी होती है कि खालीपन के लिए कोई जगह ही नहीं बचती। वे सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक सक्रिय रहते हैं। इन गतिविधियों का केंद्र केवल स्वयं नहीं होता, बल्कि परिवार, मित्रों और समाज के लिए कुछ करने की इच्छा होती है। यही सकारात्मक दृष्टिकोण उन्हें हर पल व्यस्त और प्रसन्न बनाए रखता है।

मेरे एक मित्र हैं, जो जल्द ही 78 वर्ष के हो जाएंगे। खास बात यह है कि उनके कैलेंडर में अगले तीन महीनों तक का कार्यक्रम तय रहता है। और इसमें से अधिकांश गतिविधियां समाज सेवा से जुड़ी होती हैं। भगवान की कृपा से वे आर्थिक दृष्टि से निश्चिंत हैं और अब उन्होंने ठान लिया है कि शेष जीवन जितना संभव हो, समाज की सेवा में लगाएंगे। यही व्यस्तता, यही सेवा का भाव उनके अच्छे स्वास्थ्य और मानसिक स्फूर्ति का राज है।

ऐसे उदाहरण केवल प्रेरणा ही नहीं देते, बल्कि यह साबित करते हैं कि बढ़ती उम्र में भी जीवन को सार्थक और ऊर्जावान बनाया जा सकता है। यदि हम अपने भीतर यह सोच विकसित कर लें कि उम्र केवल एक संख्या है और हर दिन हमें किसी न किसी रूप में उपयोगी बनना है, तो फिर समय की कमी महसूस होती है, खालीपन की नहीं।

लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। समाज में ऐसे वरिष्ठजन भी मिलते हैं जो हर बार यही कहते सुनाई देंगे कि “समय कटता ही नहीं।” उनके दिन लंबे और ऊबे हुए प्रतीत होते हैं। प्रायः ऐसे लोग अपने दायरे को बहुत छोटा कर लेते हैं। वे केवल अपनी तकलीफों, अपने अनुभवों और अपनी ही जरूरतों के इर्द-गिर्द सोचते रहते हैं। धीरे-धीरे उनका दृष्टिकोण सीमित हो जाता है।

ऐसे लोग जब भी शरीर में जरा-सी असुविधा या बीमारी महसूस करते हैं, तो सारा ध्यान उसी ओर केंद्रित हो जाता है। परिणामस्वरूप वे बीमारी को और गहराई से महसूस करने लगते हैं। अनेक चिकित्सक भी कहते हैं कि बीमारी पर जितना ध्यान देंगे, वह उतनी ही अधिक परेशान करेगी। इसके विपरीत यदि व्यक्ति स्वयं को किसी सकारात्मक कार्य में व्यस्त रखे, तो छोटी-मोटी तकलीफ़ें स्वयं ही गौण हो जाती हैं।

यहां प्रश्न उठता है – आखिर दोनों तरह के वरिष्ठजनों में इतना अंतर क्यों? इसका उत्तर सीधा है: जीवन दृष्टि और मानसिकता।

जिनके पास लक्ष्य है, वे अपनी उम्र को एक अवसर की तरह देखते हैं। वे मानते हैं कि जीवन का हर पड़ाव अपने साथ कुछ नया लेकर आता है। यदि सेवानिवृत्ति के बाद का समय “खालीपन” के रूप में देखा जाए, तो यह बोझिल लगता है। लेकिन यदि उसी समय को समाज-सेवा, रुचियों, मित्रों से संवाद और परिवार के मार्गदर्शन में लगाया जाए, तो यह स्वर्णिम बन जाता है।

बुज़ुर्गों के सामने अक्सर यह अवसर भी होता है कि वे अगली पीढ़ी के लिए मार्गदर्शन का काम करें। आज की भागदौड़ और तकनीक-प्रधान जीवन में युवा कई बार अनुभव और धैर्य से वंचित रह जाते हैं। ऐसे में वरिष्ठजन अपने अनुभवों से उन्हें संतुलन और समझ प्रदान कर सकते हैं। यह भूमिका उन्हें और भी महत्त्वपूर्ण बनाती है।

दूसरी ओर, यदि कोई वरिष्ठजन खुद को अलग-थलग कर लेता है, समाज से दूरी बना लेता है, या केवल अपने रोग-दुख में उलझा रहता है, तो उसका जीवन न केवल स्वयं के लिए कठिन बनता है, बल्कि परिवार और मित्रों के लिए भी चिंता का कारण हो जाता है।

इसलिए आवश्यक है कि उम्र बढ़ने के साथ-साथ हम अपने दृष्टिकोण को भी विस्तृत करें। खुद से यह प्रश्न करें – “क्या मैं आज किसी के चेहरे पर मुस्कान ला सका? क्या मैंने अपने अनुभवों का उपयोग किसी के मार्गदर्शन में किया?” ऐसे प्रश्न हमें दिनभर सक्रिय और उत्साहित रखने में सहयोग करते हैं।

व्यस्त रहना केवल शारीरिक क्रिया नहीं है, बल्कि मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य का भी आधार है। जब व्यक्ति व्यस्त रहता है, तो आत्मविश्वास बढ़ता है, मन में नकारात्मकता नहीं पनपती और जीवन के प्रति संतोष की भावना आती है।

जीवन के इस सुनहरे पड़ाव को बोझ नहीं, वरदान मानना चाहिए। जो भी अवसर मिल रहा है, उसका सदुपयोग करें। याद रखिए – समय कभी रुकता नहीं, वह तो बहता रहता है। अंतर केवल इतना है कि हम उसे किस नजर से देखते हैं – खालीपन के रूप में या अवसर के रूप में।

लेखक

विजय मारू
विजय मारू

लेखक नेवर से रिटायर्ड मिशन के प्रणेता है। इस ध्येय के बाबत वो इस वेबसाइट का भी संचालन करते है और उनके फेसबुक ग्रुप नेवर से रिटायर्ड फोरम के आज कई हज़ार सदस्य बन चुके है।

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