याद है वो दिन—कोई पचास-साठ वर्ष पहले—जब हम सब एक ही क्लासरूम में बैठते थे। लकड़ी की बेंचें, ब्लैकबोर्ड, चॉक की हल्की सी धूल और घंटी की आवाज़ — बस यही तो था हमारा संसार। हमारे क्लासरूम में कोई चालीस बच्चे होते थे। आज के जमाने में तो शिक्षा विभाग नियम बनाता है कि एक कक्षा में इतने से अधिक विद्यार्थी नहीं होने चाहिए, वरना स्कूल की मान्यता ही खतरे में पड़ जाएगी। पर तब किसी को इन बातों की परवाह नहीं थी। शायद आज के मापदंड से ज्यादा बच्चे थे क्लासरूम में, पर अपनापन भी उतना ही था। और हां, उन दिनों ज्यादातर लड़को और लड़कियों के लिए अलग अलग स्कूल होती थी।
हम सब एक जैसी यूनिफॉर्म पहनते थे — खाकी पैंट और सफेद शर्ट। लंच ब्रेक में टिफिन बॉक्स खुलते ही पूरा क्लासरूम खुशबू से भर जाता। किसी के डिब्बे में पराठा, किसी के में इडली या पूरी-सब्जी। एक-दूसरे का खाना चखना, मजाक में डिब्बा छिपाना — यही तो हमारी दोस्ती की मिठास थी। और फिर, छुट्टी की घंटी बजते ही सब अपने-अपने घर की ओर निकल जाते, लेकिन जाते-जाते “कल मिलते हैं!” जरूर कहते।
उस वक्त किसे मालूम था कि यह “कल” धीरे-धीरे कितने सालों के फासले में बदल जाएगा!
वो क्लासरूम जहां लकड़ी की बेंचें थीं, चॉक की खुशबू थी और दोस्ती की सादगी। वक्त बदला, पर वो अपनापन आज भी दिल में है। कभी हम सब उसी एक ही क्लासरूम में बैठते थे — अब बस तस्वीरों में वो पल मुस्कुराते हैं। क्लासरूम ने सिखाया था — साथ चलना ही असली सफलता है। वही सीख आज भी जीवन का आधार है।
वो बच्चे, जो एक साथ बेंच पर बैठकर एक ही शिक्षक से पढ़ाई करते थे, आज जिंदगी के अलग-अलग मोड़ों पर हैं। कोई डॉक्टर बना, कोई इंजीनियर, कोई सरकारी अफसर, कोई व्यापारी। कुछ ने अपने घर-परिवार के लिए संघर्ष किया, कुछ ने ऊंचे पद हासिल किए। और कुछ को जीवन ने ऐसी चुनौतियों के सामने ला खड़ा किया जिनका सामना करना आसान नहीं था।
कभी-कभी सोचता हूं — एक ही किताबें पढ़ीं, एक ही सवालों के जवाब लिखे, एक ही स्कूल की दीवारों के भीतर बड़े हुए — फिर भी जिंदगी ने सबको इतनी अलग राहों पर क्यों भेज दिया? क्या यह केवल भाग्य का खेल था? या फिर सही समय पर सही निर्णय लेने की क्षमता ने हमें अलग-अलग मंजिलों तक पहुंचाया? सच तो यह है कि जीवन एक परीक्षा-कक्ष ही है — बस फर्क इतना है कि इसमें न कोई निर्धारित सिलेबस है, न कोई तय तारीख। यहां हर व्यक्ति का प्रश्नपत्र अलग है। और यहां पास या फेल होने की परिभाषा भी हर किसी की अपनी होती है। किसी के लिए सफलता एक बड़ा पद है, तो किसी के लिए एक सुसंस्कृत परिवार या संतोषपूर्ण मन।
आज जब पुराने सहपाठियों की बातें होती हैं — किसी रीयूनियन में, या सोशल मीडिया पर मिलने पर — तो एक अजीब सी अनुभूति होती है। कुछ चेहरे पहचान में आ जाते हैं, कुछ बदले हुए दिखते हैं। कोई अब भी वही चंचल मुस्कान लिए बैठा है, तो कोई जीवन के अनुभवों से गहराई लिए हुए।
हम सब समय के सांचे में ढलकर अब वरिष्ठ जनों की श्रेणी में पहुंच चुके हैं — सफ़ेद बालों और झुर्रियों के साथ, पर मन अब भी वही बालपन ढूंढ़ता है। कभी-कभी मन करता है कि फिर एक दिन वही क्लासरूम मिले। वही बेंचें, वही ब्लैकबोर्ड, और वही दोस्त। पर अब यह संभव नहीं। समय ने बहुत कुछ बदल दिया है — स्कूल भी, शहर भी, और हम भी। फिर भी यादें हैं कि मिटती नहीं। वे ही तो हमारी पूंजी हैं।
आज के बच्चे शायद कभी न समझ पाएं कि उस दौर की सादगी में कितनी मिठास थी। न मोबाइल थे, न इंटरनेट, न सोशल मीडिया — फिर भी हर खबर, हर दोस्ती, हर भावनात्मक जुड़ाव एकदम असली था। आज हम सब जीवन के अनुभवों से भरे हुए हैं। शायद यही उचित समय है कि उन बचपन के दिनों से मिली सीख को, उस सादगी और मिलनसारिता को, अगली पीढ़ी तक पहुंचाएं।
क्लासरूम में बैठने की उस एकता ने हमें यह सिखाया था कि समाज भी एक बड़ा क्लासरूम है — जहां हर किसी को साथ लेकर चलना ज़रूरी है। किसी को पीछे छोड़ देने से सफलता अधूरी रह जाती है। और शायद यही जीवन का सबसे बड़ा पाठ है — जो उस पुराने स्कूल की दीवारों ने हमें बिना बताए सिखा दिया।
आज, जब कभी पुराने सहपाठियों की तस्वीरें देखता हूं या किसी का संदेश आता है — तो मन कह उठता है, “कभी हम क्लासरूम में एक साथ बैठते थे!” वो साथ अब नहीं है, पर वो अपनापन, वो यादें, वो मासूमियत — आज भी हमारे भीतर जिंदा हैं। और शायद इसी को कहते हैं — वक्त बदल जाता है, पर बचपन कहीं नहीं जाता।
लेखक

लेखक नेवर से रिटायर्ड मिशन के प्रणेता है। इस ध्येय के बाबत वो इस वेबसाइट का भी संचालन करते है और उनके फेसबुक ग्रुप नेवर से रिटायर्ड फोरम के आज कई हज़ार सदस्य बन चुके है।




