‘बुजुर्ग’ हमारे समाज की शान एवं भारत की पहचान हैं

Senior citizens our pride

समाज में बुजुर्गों का स्थान हमेशा से ही सम्मानित रहा है। घर-परिवार से लेकर चैक-चैराहे तक प्रतिदिन यह दृष्य में हमें अनुभव आता है। बस या रेल के डब्बे में कितनी भी भीड़ क्यों न हों किसी बुजुर्ग के आते ही कोई न कोई नौजवान यह कहते हुए कि ‘बाबा आप बैठ जाइए’ अपनी सीट खाली कर देता है और बुजुर्ग के मुंह से उस नौजवान को आशीर्वाद देने हेतु अनायास ही यह शब्द निकल पड़ते हैं-‘युग-युग जियो बेटा!’ यह सम्मान एवं आषीष का क्रम भारत में सदियों से चला आ रहा है। सच पूछिए तो यही भारत का मूल है। इसे सांस्कृतिक विरासत के साथ जोड़ कर भी देखा जाता है।
दरअसल, वैश्विक ताना-बाना एवं बाजारिकरण के इस दौर में हर व्यक्ति अपने को अकेला, असुरक्षित एवं निःसहाय महसूस करने लगा है। जिनका जीवन यापन नौकरी-पेशा आधारित है, या फिर जिनकी जीवन शैली कथित रूप से आधुनिकता, शहर है, ऐसे सेवानिवृत बुजुर्गाे के साथ वैसे लोग जिन्होंने समाज से दूरी बना ली है उनकी स्थिति बेहद खराब हो गयी है। परंतु भारत का का गांव आज भी अपनी इस विरासत को बचाए हुए है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में यह संस्कृति एवं परम्परा आज भी बची हुई है। सामाजिक संबंधों का ताना-बाना अभी भी मजबूत है। अतः भारत में बुजुर्गाे पर जब भी विवेचना करना हो तो इन दोनों क्षेत्रों की अलग-अलग स्थितियों को सामने रखकर ही विवेचना करना उचित होगा।

नौकरी पेशे में सेवानिवृति की आयु की अधिकतम सीमा 60 से लेकर 65 वर्ष निर्धारित है। सेना एवं सुरक्षाबलों में तो यह आयु और भी कम है। परन्तु वर्तमान समय में लोग अब अपने स्वास्थ्य के बारे में एक ओर जहां अधिक जागरूक हुए हैं वहीं पोशणयुक्त आहार की उपलब्धता भी बढी है, फलस्वरूप एक ओर जहां लोगों की औसत आयु बढी, वहीं अधिक आयु तक कार्य करने की क्षमता में भी वृद्धि हुई है। अब प्रश्न है कि इस आयु में सेवा निवृति के बाद लोग क्या करें? उत्तर बहुत ही साफ है। यदि उनका स्वास्थ्य काम करने के लिए सहयोग करता है तो उन्हें सामाजिक गतिविधियों में संलग्न रहना चाहिए। समाज एवं रोजगार के सारे दरवाजे उनके लिए खुले हुए हैं। लोगों के सेवानिवृति के बाद की स्थिति पर सोच- विचार करना एवं सरकार की कृपा पर निर्भरता ही भारतीय मूल चिंतन एवं वर्तमान के सामाजिक ताना-बाना पर प्रश्न खड़ा करता है। सेना एवं सुरक्षा बल के लोग खासकर जो सैनिक हुआ करते हैं उन्हें तो आधी से भी कम आयु में सेवानिवृत कर दिया जाता है, पर आप खोज कर देखें उनमें आपको कोई बैठा हुआ या बेरोजगार नहीं मिलेगा। फिर 60-65 वर्श के उम्र में सेवानिवृति मिलने वालों को क्यों कठिनाई है? तुलना करने पर दिखता है- सेना एवं सुरक्षा बलों में सामुहिक अनुशासन पालन करने का एवं सकारात्मक कार्यसंस्कृति का निरंतर स्वभाव विकसित हो जाता है, जिस कारण सामने कोई भी काम हो वह उसमें भेद किये वगैर, एवं किसी न किसी रोजगार या स्वावलम्बन के कार्य में लग जाता है। बिना किसी शिकायत के आनन्द की जिन्दगी जीता हुआ दूसरे को भी कर्मशील बनने की प्रेरणा देता है।

दूसरी ओर, हमारी शिक्षण पद्धति ही ऐसी है जो हमे मात्र कुछ किताबें पढ़कर ही नौकरी पा लेने की प्रेरणा देती है। इधर हमारी कार्य संस्कृति ऐसी है कि वह हमें सम्पूर्ण कार्यावधि में कोई भी दूसरी विधा या हूनर सिखने-सिखाने की इजाजत ही नहीं देता है। हमारी ओर से भी कोई अन्य हूनर या विधाओं में दक्षता प्राप्त करने का प्रयत्न कम होता है, हम एक रूटीन जीवन के अभ्यासी हो जाते हैं। यही वह सबसे बड़ा कारण है जो नौकरी चाहे सरकार की हो या प्राइवेट, सेवानिवृत होते ही हम अपने को अकेला, बेरोजगार एवं लाचार महसूस करने लगते हैं। जबकि सेवानिवृति के बाद के जीवन के लिए कई सकारात्मक पहलू समाज में होते हैं। आगे का समय नौकरी पेशे के समय बंधन से मुक्ति का होता है। व्यक्ति अपने समय का नियोजन अपनी स्थिति के अनुसार कर सकने के लिए स्वतंत्र होता है।

भारतीय संस्कृति के अनुसार हर व्यक्ति के जीवन को चार भागों में बांटा गया है, जिसमें तीसरा भाग वानप्रस्थ जीवन के रूप में जीने को समाज निर्देशित करता है। परन्तु वानप्रस्थ का मतलब घर-द्वार-परिवार छोडकर जंगल में तपस्या करने का भाव लोगों के मन में रूढ़ बन गया है। समयानुसार समाज की स्थितियां एवं उसकी आवश्यकताएं बदलती रहती हैं, परन्तु मूलभाव एक ही रहता है। आज यदि वानप्रस्थ के मूलभाव को देखा जाए तो यह है कि सेवानिवृति के बाद व्यक्ति आयु की जिस अवस्था में हैं उसे अब निर्णय के अधिकार एवं अपने कार्यभार आगामी पीढि को सोंपने की तैयारी करनी है। यह मालिकाना भाव या कर्तापन का त्याग ही आज का वानप्रस्थ है। इस छोटी-सी स्वभावगत परिवर्तन मात्र से आपका भविष्य का परिवार एवं समाज दोनों ही मजबूत बनाएगा। अतः व्यक्ति चाहे नौकरी-पेशे, व्यापार या खेती-किसानी के कार्य में से किसी से सेवानिवृत क्यों न हुआ हो अपने इस दायित्व का त्याग तो हर के लिए आवष्यक है। याद रखें, जब हम अपने पूर्व के दायित्वों से भी निवृत हो जाते हैं तभी हम अपनी आगामी जीवन की योजना बनाने में सफल हो पाते हैं।

नौकरी-पेशा से सेवानिवृत लोगों से समाज की अपेक्षाएं और भी बढ जाती हैं। आपके वर्षाे के अनुभवों का लाभ आपसे सम्बन्धित समाज को मिलना ही चाहिए। आपने इतने वर्षों में अनेकों तकनीकि ज्ञान, प्रबन्धिकीय एवं षासकीय अनुभव अर्जन किया है, देष-विदेश की भाषा-संस्कृति तथा जीवन षैली का परिचय पाया है, इससे आप अपने समाज को लाभान्वित कर सकते है। आप अब केवल स्वयं की ही नहीं अपितु समाज की थाति हैं, पथप्रदर्शक है।

नौकरी-पेशा में रहते हुए घर-परिवार के लिए अपेक्षित समय में कमी रहती है। भाग-दौड की जिंदगी में परिवार का ताना-बाना टूटता ही चला जाता है, समयाभाव में विशेषकर बच्चे एवं घर की महिलाएं हमेशा ही दुर्लक्षित होती चली जाती हैं। यह अवसर परिवार के बिखरे हुए पंखूडियों को पुनः एकजूट करने और सब की अलग-अलग भावनाओं को कद्र करते हुए इसे सहेजने एवं समेटने का होता है। अब आप पिताजी या माताजी ही नहीं अपितु एक पीढि उपर के व्यक्ति होते हैं अर्थात् अब आप किसी के दादा-दादी-नाना-नानी हैं। एकल परिवार (Nuclear Family) में बच्चे बडे ही बेचारे एवं दया के पात्र बन जाते हैं। मां-पिताजी के व्यस्ततम् जिन्दगी के कारण उन बच्चों को भी अपने मां-पिताजी के प्रति ढेर सारी शिकायतें रहती हैं, वह उसे किससे कहे, अपनी फरियाद कहां लिखवावे, आपको उसके लिए एक कम्पलेंट बाॅक्स बनकर उसकी वात्सलयता को बचाये रखने का दायित्व निर्वहन करना है। ‘चंदा मामा’ एवं ‘एक थी रानी – उसकी बेटी फूल कुमारी’ वाली जैसी कथा-कहानियां जो बालक मन पर हमेशा-हमेशा के लिए छाप छोड़ जाती हैं उसे कोैन सुनावेगा। यह महसूस किया जा रहा है कि जिनका बालपन गया वह आगे समाज में अपने को हमेशा-हमेशा के लिए कुण्ठित एवं अकेला ही महसूस करता हैं। यही कारण है कि आज समाज में नौजवान बच्चों द्वारा उच्छृंखल एवं व्यविचार की घटनाएं दिनों-दिन बढती जा रही हैं। समाज में इस जैसे अनेकों समाजिक बुराईयों का बढ़ना आज बुजुर्गाे द्वारा समय पर परिवार में अपनी जिम्मेवारी को नहीं निभाने का ही परिणाम है। अतः केवल वर्तमान ही नहीं भविष्य का समाज गढने का दायित्व भी आप पर ही है।

एक सामान्य भारतीय समाज में आमतौर पर देखा जाता है कि घर में जब तक कोई बुजुर्ग जीवित हैं चाहे वह मां हो या पिता हों, उनके बच्चे एक साथ रहने को बाध्य रहते हैं, चाहे उनके बीच आपस में बडे गतिरोध ही क्यों न हों। हलांकि यह कोई कानूनी बन्धन नहीं है पर एक सामाजिक बन्धन का निर्वहन करना भी पुरूषार्थ में ही गिना जाता है। माँ-पिताजी के जीवित रहते चाहे वह बीमारी की अवस्था में बेहोश चारपाई पर लेटे ही क्यों न हों, यदि उनकी संतान अलग-अलग हो जाते हैं अर्थात् घर बंट जाए तो समाज में उनकी बदनामी होता है तथा यह लांक्षणा उनकी कई पीढियों तक चलता रहता है।

भारत की परिवार व्यवस्था संसार में सराहा जाता है एवं हमें दुनियां के सामने अपनी इस सामाजिक व्यवस्था पर गर्वांवित होने का अवसर प्राप्त होता हैै और हम अधिक समय तक गर्वांवित होते रहें यह अवसर तो आपका दीर्घ आयुष ही हमें प्रदान करेगा। भारत में एक बहुत बड़ा वर्ग खेती-किसानी, हस्तशिल्प एवं पशुपालन पर निर्भर है। खेती-किसानी का जो परम्परागत ज्ञान हमारे बुजुर्गाे के पास रहा है वह बेसकिमती है, अनमोल है। सारे मौसम एवं नक्षत्रों की जानकारी रखना, हवा का रूख या आकाश के रंग देखकर वर्षा का सटीक अनुमान लगा लेना, पशु-पक्षियों एवं कीट-पतंगों की आने-जाने की दिशा तथा आवाज पहचान कर आने वाली प्राकृतिक आपदाओं के बारे में समझ रखने वाले, फसलक्रम से लेकर मृदा विज्ञान एवं भूमिजल की जानकारी तक रखने वाले हमारे बुजुर्ग ही तो हैं। अब जरा सोंचें ऐसे अनुभवी जनों को भला आयु कैसे प्रभावित कर पायेगा। गांव-समाज से यदि एक भी बुजुर्ग घटते हैं तो समझिये वहाँ एक ज्ञान का भण्डार या एक चलता फिरता पुस्तकालय की कमी हो गई।

दादी मां का बटुआ (Grand Ma Recipe) के नाम से जाना जाने वाला परम्परागत देशी चिकित्सा ज्ञान के भण्डार तो हमारे ये बुजूर्ग ही हैं। जडी-बुटियों की पहचान ही नहीं उनका विस्तार एवं संरक्षण कर आज हम तक पहुंचाया तो इन्होंने ही न! एक छोटे से उदाहरण से ही समझ में आ जाता है कि मात्र एक छोटी सी देशी चिकित्सा पद्धति के लोप हो जाने सेे पूरा समाज ही कैसै तितर-बितर हो जाता है- कुछ वर्ष पहले तक कमोवेश भारत के हर गांव में धाय माँ या यों कहें कि घर में ही प्रसव करवा लेने की दक्षता रखने वाली कोई न कोई माताएं हुआ करती थीं। यहां तक कि मेरा जन्म भी अपने घर में किसी धाय मां के देखरेख में ही हुआ है। परन्तु इस छोटे से देशी ज्ञान जो किसी को समझ में भी नहीं आया और कालक्रम से आज समाप्ति की ओर है जिसके फलस्वरूप समाज में कितनी जटिलताएं पैदा हो गईं। जो समाज हर गुणों से स्वावलम्बी था आज परावलम्बी बन गया है। आज की पीढ़ी तो आम-नींबू के अचार तक बनाना भूल गई और हम डब्बा बन्द अचार खाने को मजबूर हैं। धान रोपने से लेकर सारे पर्व त्योहार, हर मौसम के देशी गीत एवं लोककलाओं का क्षय होता जा रहा है। रामायण-महाभारत से लेकर गीता एवं पुराण की कथाएं, महापुरूषों की बलिदान की गाथाएं, भारत के उत्कर्ष एवं पतन की कहानियां कौन सुनायेगा नवीन पीढ़ि को! श्रूति एवं स्मृति का यह क्रम आपके बगैर कौन आगे ले जाएगा! इन सारी विषेशताओं एवं गुणों से सम्पन्न समाज को मजबूत करने में आज भी तो हमारे इन बुजुर्गाे का ही समर्थन चाहिए।

भारत की एक सनातन विशेषता रही है की मजबूत ग्रामीण अर्थव्यवस्था और इस मजबूती का बडा आधार रहा है परम्परागत कारिगरी। भारत के किसी भी भाग में किसी भी गांव को देख लीजिए आप पायेंगे वह अपने स्वावलम्बन का सारा उपक्रम खड़ा कर रखा है। उसके जीवन के लिए आवश्यक सभी चीजें चाहे वह कृषि-पशुपालन से जूडे उत्पाद हों या कारिगरी के सामान सभी हर गांव में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते रहे हैं। हर विधा एवं हूनर के लोगों के बसने से ही कोई गांव बनता था। खेती एवं पशुपालन करने वाले से लेकर अलग-अलग कारीगरी पेशे के लोगों ने आपस में सहकार की जिंदगी जीने की एक अद्भूत परन्परा विकसित की और यही हमारी भारतीय संस्कृति का आधार बनीं। हमारे गांव तो सब का स्वागत करता है, चाहे आप जिस गुण के धनी हों। कहने का अभिप्राय यह है कि नौकरी पेशे से सेवानिवृत लोग हों या अन्य क्षेत्रों से, सबों के लिए स्वारोजगार एवं स्वावलम्बन की अनेक संभावनाएं हैं। वर्तमान समय में तो योग-प्राणायाम एवं परम्परागत चिकित्सा के क्षेत्र में भी एक बहुत बडा अवसर उपस्थित हुआ है। जो भी इन विधाओं के साथ समाज में आगे आयेंगे उनके स्वयं का तो कल्याण होगा ही साथ ही समाज का भी भला कर पाएंगे। इससे कहीं न कहीं संपूर्ण मानवता की सेवा होगी। सरकार एवं बैकों के द्वारा भी रोजगार की अनेकों योजनाएं अब प्रदान की जा रही है। बस आवश्यकता है मानसिकता बदलने की। हमें सक्रिय जीवन एवं उत्पादक बनकर स्वावलम्बी एवं स्वाभिमानी जीवन का चिंतन करना होगा। अब यह परम्परा धीरे-धीरे प्रारम्भ होती हुई दिख रही है जो स्वागत योग्य है।

लेखक परिचय

Lalan Kumar Sharma, Central Incharge, GMY & Kendriya Sah Abhiyan Pramukh, Ekal Abhiyan

डाॅ ललन कुमार शर्मा
केन्द्रीय सह अभियान प्रमुख, एकल अभियान
-सह-
केन्द्रीय योजना प्रमुख, ग्रामोत्थान योजना

1 thought on “‘बुजुर्ग’ हमारे समाज की शान एवं भारत की पहचान हैं”

  1. रमेश धरणीधरका

    वृधावस्था में कर्मयोग और सार्थक जीवन की बहुत सुंदर प्रस्तुति
    साधुवाद
    🙏🏼

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